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कवि गोष्ठी में कवियों ने बिखेरे अनूठे रंग

28 फरवरी 2010
सिरसा(सिटीकिंग) चौधरी देवीलाल विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के टेलीविजन स्टूडियो में होली के उपलक्ष्य में आयोजित कवि गोष्ठी में नगर के कवियों ने काव्य के अनूठे रंग बिखेरे। गोष्ठी में पत्रकारिता के विद्यार्थियों व सामुदायिक रेडियो पर कार्यरत स्वयंसेवियों ने भी काव्यरस कर भरपूर आनंद लिया। कार्यक्रम के संयोजक व सामुदायिक रेडियो स्टेशन के निदेशक वीरेंद्र सिंह चौहान ने इस अवसर पर प्रबुद्ध कविगण का स्वागत करते हुए बताया कि आज की गोष्ठी के साथ विभाग के टेलीविजन स्टूडियो में विधिवत प्रोडक्शन कार्य प्रारंभ हो रहा है। उन्होंने बताया कि विभाग के विद्यार्थी अब से नियमित टेलीविजन कार्यक्रमों का निर्माण करेंगे और इनमें से चुनींदा स्थानीय केबल चैनल हरियाणा टुडे पर प्रसारण करने की भी योजना है। उन्होंने कहा कि जल्द यह स्टूडियो उन्नत और अत्याधुनिक उपकरणों से लैस हो जाएगा ओर उसके बाद विभाग दूरदर्शन के लिए कार्यक्रम निर्माण का कार्य भी प्रारंभ करेगा। कविगोष्ठी का संचालन कर रहे हिंदी और पंजाबी के साहित्यकार सुखचैन सिंह भंडारी ने प्रारंभ में विद्यार्थी मुकुल मोंगा को काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया। राजकीय नेशनल कॉलेज सिरसा में हिंदी के शिक्षक प्रो. हरभगवान चावला ने अपनी रचना कुछ यूं पढी:
कभी चिट्ठियां बयार की तरह आती थीं, शीतल हो जाता अंतरतम।
कभी बारिश की तरह आती थी चिट्ठियां, पोर पो भीगता था, रीझता था मन।
अब चिट्ठियां धुंए की तरह आती हैं, पढते पढते धुंए की तरह उड जाती हैं।
अब रेत के ढू सी आती हैं चिट्ठियां,कहीं से छुओ उंगलियां नहीं भीगती।
कविवर श्रीगोपाल शास्त्री ने चमचों पर कुछ इस अंदाज में व्यंग्य किया :
सोना तो मंहगा है सस्ती अब चांदी है।
चांदी के चमचे हैं चमचों की चांदी है।
पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष और सामुदायिक रेडियो के निदेशक वीरेन्द्र सिंह चौहान ने बीते गणतंत्र दिवस पर श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा न फहराए जाने की पीडा कुछ यूं बयां की:
ऐसे किस्से सुने न देखे हमने कहीं जहान में।
जैसे तिरंगा अपमानित होता है हिंदुस्थान में।
होली के उल्लास में खोए जवानों से चौहान ने अपनी कविता के माध्यम से कुछ तल्ख सवाल पूछे :
रंग रंजित यौवन भारत के, कैसा यह यौवन का नाटक।
तेरे कानों में नहीं पड़ी क्यूं नहीं अरि के कदमों की आहट।।
मां के घावों को देख रहे क्यूं तड़प नहीं उठते बेटे।
जीते हैं जिसके अन्न जल से, क्यूं उसको ही भूले बैठे।।
हिंदी के प्रख्यात कवि प्रो. रूप देवगुण ने अपनी क्षणिकाओं के लिए खूब वाहवाही लूटी :
मैं चट्टान पर बैठा हूं और इंतजार कर रहा हूं
छेडख़ानी करे समुद्र मुझसे छीटें फेंक कर।
जाने माने पंजाबी कवि डा. दर्शन सिंह ने होली पर अपनी बात की शुरूआत एक टप्पे से की :
होली दे रंग मित्रा,
चंगे ने ताहियों लगदे
जे होण तेरे संग मित्रा।
होली को उनके प्रस्तुत गीत ने भी खूब वाहवाही लूटी :
आ मेरेया हाणिया वे रल मिल के होली मनाइए।
रंगा दे त्योहार ते आ गीत प्रेम दे गाइये।
मंहगाई दी मार दे थल्ले आ गया देश है सारा,
गरीब आदमी कित्थे जाए
कवयित्री सुदेश कंबोज ने इस अवसर पर एक गजल पढ़ी :
ये किसकी तूलिका रंग दिया संसार,
कुदरत की चुनरी पर छींटे दिए मार।
भोर की लाली ने जादू गजब किया है,
सोई हुई धरा पर आ गया निखार।
डा. जी.डी. चौधरी ने अपनी रचना कुुछ यूं पढ़ी:
दूषित पौणा अपणा रंग विखालया।
धरती तां की अबंर भी चगलाया है।।
दोष गली दे चिक्कड दा वी होएगा
पैर तुसां वी अपणा गलत टिकाया है।।
कविवार राजकुमार निजात ने दोहों को श्रोताओं ने खूब पसंद किया:
रंग रंगीला हो गया, फागुन का मधुमास।
और चुटीली हो गई रंग-रंगीली प्यास।।
पायल की झंकार से मचले दिल का रंग।
और बावला हो गया होली का हुड़दंग।।
कार्यक्रम के अंत में सुखचैन सिंह भंडारी ने अपनी रचनाओं से श्रोताओं व दर्शकों से खूब तालियां बटोरी:
भर पिचकारी सैंया आकर डारा मो पर रंग।
तन भी भीगा मन भी भीगा, हो गई मैं बदरंग।
ले कर फिर गुलाल पिया ने गालों पर मल डाला।।
हमरी हालत ऐसी हो गई जैसे कटी पतंग।।
गोष्ठी में सुशील गोयल, हिमांशु व मुकुल मोंगा ने भी अपनी रचनाएं पढ़ी।

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