मढ़की बनी परी
इन्द्रपुरी नामक एक नगर में एक गरीब बनिया रहता था। वह हर दिन मसालेदार पट्टी बेचने दूसरे नगर और गांव में जाता था। सारा दिन नगर और गांव में घूमकर पट्टी बेचता और शाम को दिन डूबने से पहले अपने घर चला आता था। उसका नाम धर्मचन्द था। एक रोज धर्मचंद पट्टी बेचकर वापस अपने घर लौट रहा था तभी रास्ते में पडऩे वाले तालाब में एक सुंदर सी मेढ़की दिखाई पड़ी। मेढ़की का सतरंगा रूप था तथा उसका रूप रंग अन्य मेढ़कियों से अलग थी। धर्मचंद को मेढ़की बहुत पसंद आई उसने तुरंत उस मेढ़की को पकड़ कर अपने झोले में रखकर घर लाया, फिर उसे शीशे के एक बड़े जार में पानी भरकर मेढ़की को उसमें डाल कर ऊपर से उसका ढक्कन बंद करके रख दिया। धर्मचंद कुंआरा था। उसकी शादी नहीं हुई थी, इसलिए धर्मचंद सुबह और रात का खाना खुद बनाता और खाता। उस रोज धर्मचंद खाना बनाकर खाया और सो गया। रात को इभ्क बारह बजे शीशे के जार से किसी औरत को रोने की आवाज सुनाई दी। रोने की आवाज सुन कर धर्मचंद की नींद खुल गई। वह उठ कर तुरंत शीशे के जार के पास जा पहुंचा जिसमें से आवाज आ रही थी। धर्मचंद ने शीशे के जार में देखा तो एक नन्हीं परी बाहर आने को रो रही थी। धर्मचंद परी को देख कर तुरंत शीशे के जार का ढक्कन खोल दिया। ढक्कन के खोलते ही नन्हीं परी बाहर आकर एक बड़ी परी बन गई। परी धर्मचंद से बोली तुमने हमें मेढ़की योनि से हमेशा के लिए छुटकारा दिलाया है। मैं तुम पर बहुत खुश हूं। जो चाहो मांग- लो-मैं देने को तैयार हूं। परी की बात सुनकर धर्मचंद बोला, मैं तुम्हें अपनी पत्नी बनाना चाहता हूं, क्योंकि घर में कोई घरवाली नहीं है। तुम हमारी घरवाली बन जाओ इसके सिवा हमें कुछ नहीं चाहिए। इतना सुनकर परी बोली-तुम हमें घरवाली बनाने की बात छोड़कर सोना, चांदी, हीरे, मोती कुछ भी मांग लो, सब दूंगी। धर्मचंद बोला मुझे तुम्हारे सिवा कुछ भी नहीं चाहिए। तुम्हें हर हाल में हमारी घरवाली बनकर हमारे साथ रहना होगा। परी बोली ठभ्क है, मगर एक बात याद रखना अगर किसी दिन तुमने हमें मारापीटा हमसे झगड़ा किया तो मैं परीलोक चली जाऊंगी। मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है, धर्मचंद बोल पड़ा। अगले दिन धर्मचंद ने बड़ी धूमधाम से परी के साथ शादी की और सारे नगर के लोगों को भोजन कराया। उस दिन से धर्मचंद परी के साथ सुखपूर्वक रहने लगा। उसने कभी न परी को मारा पीटा न झगड़ा किया। धर्मचंद जब बूढ़ा हो गया तो परी उसे अपने दोनों बेटों को साथ लेकर परीलोक चली गई, फिर कभी धरती पर लौट कर नहीं आई। बद्री प्रसाद वर्मा अंजान