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राष्ट्रीय ध्वज का इतिहास

राष्ट्रीय प्रतीकों में राष्ट्रीयध्वज का स्थान सर्वोपरि है तथा किसी भी देश का राष्ट्रीय ध्वज उसका सर्वाधिक सम्मानित प्रतीक होता है। प्रत्येक राष्ट्र का ध्वज उसकी सार्वभौमिकता को प्रकट करता है और उसके पीछे उसे राष्ट्र का इतिहास, उसकी गौरवशाली परम्परा अस्मिता तथा उसके भविष्य का संकल्प छिपा रहता है। यही नहीं राष्ट्रीय ध्वज राष्ट्र की सभ्यता संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों को भी परिलक्षित करता है, जिन्हें हम वर्षों से संजोये हुए हैं और आगे भी उसके सम्मान का प्रण करते हैं। हमारे राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के साथ भी कई सुनहरी यादे जुड़ी हैं, देश की आजादी की लड़ाई में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है तथा इसी को आदर्श मा हजारों देश प्रेम के लिए कुर्बान हो गए तिरंगा हमारे देश की गरिमा ओर प्रतिष्ठा का प्रतिनिधित्व करता है तथा यह सच्ची भारतीयता और विशुद्ध पंथ निरपेक्षता का प्रतीक है। आज यह हमारे विशाल लोकतंत्र को एकता के सूत्र में बांधे रखने में पूर्णत: सशक्त एवं सक्षम है तथा पूर्ण जिम्मेदारी से अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहा है। तिरंगे के इतिहास पर नजर डाले तो गुलामी के दिनों में राष्ट्रीय झंडा आंदोलन की देन भारत को पहली बार एक ऐसा झंडा प्रदान करने की रही तो सर्वमान्य था तथा जिस पर सभी धर्म जाति के लोग जान न्यौछावर करने को तैयार थे, हालांकि अतीत में कभी भी पूरे भारत में एक राष्ट्रीय ध्वज नहीं रहा, लेकिन स्वाधीनता आंदोलन के दौरान सम्पूर्ण देश के लिए एक राष्ट्रीय ध्वज की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी, जिसके तले सभी देशवासी एकजुट होकर अंग्रेजों के विरूद्ध आजादी की लड़ाई लड़ सकें। इसी सोच के तहत एक राष्ट्रीय ध्वज की परिकल्पना सामने आने लगी। 1921 में जब यह परिकल्पना की गई थी, तब कई सारे प्रतीक सामने थी। कांग्रेस ने उस समय सभी बड़े नेताओं की आम राय पर तिरंगे को राष्ट्र की एकता और अंखडता के प्रतीक वाले राष्ट्र के मध्य चरखे का निशान था सबसे ऊपर की पट्टी का रंग लाल, मध्य की सफेद तथा नीचे की पट्टी का रंग हरा तय किया गया। सफेद पट्टी पर नीले रंग का चरखा अंकित था, इस ध्वज में लाल पट्टी हिन्दुओं, हरी पट्टी मुसलमानों तथा सफेद पट्टी अन्य धर्मावलंबियों की प्रतीक थी। ब्रिटिश सरकार ने कदम-कदम पर भारत के झंडे का विरोध किया, पर यह गौरतलब यह है कि जितना यह विरोध बढ़ता गया, उतनी की अधिक देशवासिओं की श्रद्धा इससे बढ़ती गई। 1924 में उत्तर प्रदेश में जन्मे स्वाधीनता सेनानी श्यामलाल गुप्त ने देश प्रेमियों में जोश भर देने वाले झंडा गान विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा उंचा रहे हमारा की रचना की, जिसको सर्वप्रथम 1925 के कानपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में गाया गया। यह झंडा गान बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुआ और दासता के विरूद्ध संघर्ष तथा भारतीयों में देशभक्ति की भावना जगाने और प्रबल बनाने का परिचायक बना। 1931 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन में मौजूदा झंडे में कुछ आमूल परिवर्तन करने का निर्णय लिया गया। डा. बी. पट्टाभिसीतारमैया के नेतृत्व एक कमेटी गठित की गई तथा कमेटी निर्णय अनुसार यह फैसला लिया गया कि तिरंगे में रंगों का क्रम ऊपर से नीचे की ओर क्रमश: भगवा, सफेद हरा होगा। बीच की सफेद पट्टी में बना चरखा नीले रंग का ही होगा तथा इन रंगों का कोई साम्प्रदायिक महत्व नहीं होगा। भगवा रंग साहस एवं त्याग का, सफेद शांति का और हरा आस्था एवं शौर्य का प्रतीक होगा, जबकि चरखा जनता की आशा का घोतक होगा। इस निर्णय को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने भारी बहुमत से स्वीकार किया तथा समिति ने देश भर में फैले अपने सभी संगठनों को 30 अगस्त 1931 को देश में नया तिरंगा झंडा फहराकर झंडा दिवस मनाने का आदेश दिया। इस दिन देश में घर घर में नया झंडा फहराकर अंग्रेजी हकूमत का विरोध किया गया। 1942 के प्रसिद्ध भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान 9 अगस्त को मुंबई के ग्वालियर टैंक मैदान (अब अगस्त क्रांति मैदान) में अरूण आसफ अली द्वारा तिरंगा फहराया जाना एक स्मरणीय ऐतिहासिक घटना है। इस घटना से ठीक एक दिन पहले यानी 8 अगस्त को राष्ट्रीयता महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ों तथा करो या मरो का नारा दिया था। कांग्रेस पार्टी ने इस तिरंगे को राष्ट्रीयता ध्वज मान लिया था, परन्तु मुस्लिम लीग और कम्प्यूनिस्ट पार्टियों सहित देश की कई रियासतों ने इसे राष्ट्रीयता ध्वज मानने से इंकार कर दिया। इन्हें रंगों का चयन अखरा था, परन्तु कांग्रेस ने रंगों को बदलना ठीक नहीं समझा, हां उनकी व्याख्या अवश्य बदल दी। इसी दौरान मुस्लिम लीग ने चांद तारे युक्त हरे झंडे को अपना झंडा बनाया, तो कम्प्यूनिस्ट ने भी अपना अलग झंडा बनाया। अनेक रियासतें भी अपने झंडों को जब तक कि उन्हें भारत का अंग नहीं बना लिया गया, इस तिरंगे से अधिक महत्वपूर्ण मानती रही। 3 जून 1947 को जब तत्कालीन वायसराय लार्ड माउंट बेटन ने भारत को स्वतंत्र कर देने के लिए निर्णय की घोषणा की, तब आजाद भारत के लिए एक सर्वमान्य राष्ट्रीय ध्वज की आवश्यकता महसूस हुई। अत: 23 जून को डा. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई, जिसे आजाद भारत के राष्ट्रीय ध्वज के विषय में अंतिम नर्णय लेना था। समिति ने 14 जुलाई 1947 को प्रस्तुत अपने निर्णय में कहा कि नया झंडा तिरंगा ही रहेगा। झंडे की सबसे उपरी पट्टी में प्रतीक के रूप में चरखे के स्थान पर सम्राट अशोक के सारनाथ स्तम्भ पर अंकित चक्र की हू--हू आकृति होनी चाहिए तथा प्रतीक का रंग गहरा नीला होना चाहिए। 18 जुलाई 1947 को राष्ट्रीय ध्वज के रूप रंग के विषय में अंतिम निर्णय लिया गया तथा 22 जुलाई 1947 को पं. जवाहर लाल नेहरू ने इसे स्वीकृत करने का प्रस्ताव संविधान सभा के समक्ष रखा जिसे ध्वनि मत से स्वीकार कर लिया गया। -प्रैसवार्ता

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