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बसंत पंचमी के अवसर पर काव्य गोष्ठी का आयोजन

20 जनवरी 2010
सिरसा(सिटीकिंग) बसंत पंचमी के अवसर पर चौधरी देवीलाल विश्वविद्यालय के मीडिया सेंटर में नगर के जाने-माने कवियों ने काव्य के रंग बिखेरकर शिशिर को विदाई दी और नई ऋतु का स्वागत किया। काव्य गोष्ठी में डा. जी. डी. चौधरी, डा. रूप देवगुण, प्रो. हरभगवान चावला, सामुदायिक रेडियो स्टेशन के केंद्र निदेशक व पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष वीरेंद्र सिह चौहान, प्रिंसीपल आर. के. शर्मा साइल, रमेश शास्त्री एवं डा. राज कुमार निजात ने अपनी रचनाएं पढ़ी। गोष्ठी के प्रारंभ में मंच संचालन कर रहे डा.राज कुमार निजात ने प्रतिष्ठित साहित्यकार प्रो.रूप देवगुण को रचना प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने बसंत के आगमन को अपनी सुंदर कविता में कुछ यूं बांधा :
ताला लगाकर घर को कुछ दिनों के लिए हम गए थे बाहर,
वापिस आए तो घर के वृक्ष पर नई पत्तियां फूट गई थी।
गए थे तो उस वृक्ष के सभी पत्ते झड़ चुके थे
जाना शायद पतझड़ का और आना बसंत का कही प्रतीक तो नहीं होता।
पंजाबी के मूर्धन्य कवि डा.जी डी चौधरी ने पंजाबी रचना यूं पढ़ी :
जाम ते साकी ते किंज मैं गीत गांवां
सामने मेरे ने खुलियां क त्लगाहवां।
ऐ मजहब दो मुखड़ा जो होया लालो लाल है,
केहड़े केहड़े हथ वल मैं उंगली उठावां।
प्रो. हरभगवान चावला को मंच पर निमंत्रण दिया। डा. चावला ने पतझड़ और बहार के मौसम में बहार को केन्द्रित करते हुए अपनी रचना पढ़ी।
मेरे पीछे पीछे आओ कोयल, गाओ कोयल।
शायद बसंत तुम्हारे पीछे चला आए ।
प्रो. चावला के दोहों को भी खूब सराहा गया :
कौन नींद में दे गया , इक सपना इक गीत
गली गली अब ढूंढता, वह अनजाना मीत।
कविवर रमेश शास्त्री ने बसंत के बजाय पावस पर अपनी रचना पढ़ी:
पावस का थामे हाथ, हाथ जब सावन साथ चला।
कलियां कलोल कर मुस्कराई, पतझर का जिया जला।।
गजलकार प्राचार्य आर.के. शर्मा साइल ने अपनी गजलों से खूब तालियां बटोरी। उनकी इस गजल को खूब सराहा गया:
हमें उसने दिल से निकाला नहीं है, कभी आके लेकिन संभाला नही है।
दिखाए तो है खवाब लाखों सुनहरे, किसी को हकीकत में ढाला नहीं है।
जो हल्का है ऊपर वही होगा साइल, तेरा नाम हमने उछाला नहीं है।
हमें चुप कराने से क्या होगा हासिल, लबों पर जमाने के ताला नहीं है।
इनके बाद डा. निजात ने मंच पर सामुदायिक रेडियो के निदेशक वीरेंद्र सिह चौहान को आमंत्रित किया। शिशिर के अंत और बसंत के आगमन के साथ मन में बसंत की चाह को चौहान ने कुछ इस तरह गाया :
मन की दुसह घुटन का, बस अंत ढूंढता हूं।
अति हो गई शिशिर की, मैं बसंत ढूंढता हूं।
कविता केवल कला बन कर रहने के बजाय परिर्वतन की सूत्रधार बने, इन भावों को समेटे चौहान ने कहा:
काव्य केवल कला बनकर क्यों रहे ।
क्यों न कविता क्रान्ति सरिता बन बहे।।
अंतिम चरण में गोष्ठी को एक बार फिर बसंत की ओर लाते हुए मंच संचालन कर रहे डा. निजात ने अपनी रचना यूं पढ़ी :
मुश्किल में है बहार, ये कैसा बसंत है।
सब कुछ है तार तार ये कैसा बसंत है।।
बेखौफ हैं बंदूक और बारूद है मुखर।
गुल हो गए अंगार, ये कैसा बसंत है।

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