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सत्संग भगवान से भी दुर्लभ:केशवानंद सरस्वती

03 May 2010
सिरसा(अमित जैन/मनोज अरोडा) श्री सनातन धर्म सभा सिरसा के तत्वाधान में आयोजित श्री मद्भागवत सप्ताह ज्ञानमहायज्ञ के तृतीय दिवस के प्रथम सत्र को सम्बोधित करते हुए नैमिषारण्य तीर्थ से पधारे पूज्यपाद दण्डी स्वामी डा. केशवानंद सरस्वती जी ने कहा कि सत्संग भगवान से भी दुर्लभ है क्योंकि ध्रुव जी को बाल्यकाल में ही भगवान तो मिल गए थे किंतु सत्संग नहीं मिला था। परिणाम स्ववरूप भाई उत्तम के शत्रु को मारने के लिए धु्रव जी क्रोधावेग में दौड़ पड़े, तब पुन: धु्रव जी को महाराज मनु ने आकर उपदेश दिया कि आप जैसे भवत्प्राप्त व्यक्ति के लिए इस प्रकार का आचरण करना शोभ नहीं देता। उसके पश्चात स्वामी जी ने कहा कि धु्रव जी को भगवान से पहले सत्संग मिलता तो उस विषम परिस्थिति में धु्रव जी को क्रोध नहीं आता सत्संग में ही इतनी क्षमता है कि शरीर छूटने से पहले दुर्गुणों के वेग को छुटा देता है। धर्म की व्याख्या करते हुए स्वामी जी ने कहा कि महर्षि वेदव्यास के अनुसार अपने को जो व्यवहार अच्छा नहीं लगता वह व्यवहार दूसरों के साथ करें यही धर्म है। निंदा सुनना हमें अच्छा नहीं लगता तो हमें दूसरे की निंदा नहीं करना चाहिए। यही धर्म है और तुलसीदास जी कहते हैं, 'परनिंदा सम अधन गरीसा' अर्थात परनिंदा के समान कोई अधर्म नहीं है। यही सिद्धांत है किंतु उन शास्त्रों में कहीं कहीं परोक्ष रूप से धर्म की व्याख्या की हुई होती है। जिनको लोग समझ नहीं पाते और उस शंका का समाधान न करके शंकापंक में ही डूबे रहते हैं। जबकि सत्संग सभी शंकाओं के समाधान का प्रमुख सशक्त साधन है। आगे की कथा में स्वामी जी ने चतुर्थ स्कंध की कथा का समापन करते हुए पुरञ्जनोपराण्यान की कथा सुनाई। उसके पश्चात पञ्चमस्कंध में स्वामी जी ने कहा कि ज्यादातर हमें सत्संग मिल भी जाता है तो हम उसकी महत्ता को नहीं समझते इसीलिए हम लोग सत्संग में तो बैठते हैं किंतु सत्संग हमारे अंदर नहीं बैठता इसीलिए हमें सत्संग को अपने अंदर बैठाने का प्रयास करना चाहिए। आज लोग संत से चमत्कार की अपेक्षा रखते हैं जबकि चमत्कार दिखाना वाजीगर का काम है संत का नहीं। संत का तो दर्शन ही चमत्कार है। किंतु संत होना चाहिए उसका दर्शन जीवन का अद्वितीय चमत्कार है। इसी प्रकार प्रियव्रत चरित्र, ऋषभ देव चरित्र, भरत चरित्र आदि के माध्यम से स्वामी जी ने भागवत धर्म का उपदेश दिया।

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