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दहेज में नाग, बीन और पिटारा

लखनऊ (प्रैसवार्ता) सांप को देखकर आम आदमी भले ही सिर से पांव तक कांप जाता हो, लेकिन सपेरों के लिए तो सांप उनकी रोजी रोटी का साधन है और यही वजह से कि सपेरों में वधु पक्ष की हैसियत के अनुरूप अजगर, नाग, बीन और पिटारा देने की प्रथा है। वाइल्ड लाइफ ट्रेनिंग सेंटर कालगढ़ के निदेशक नरेन्द्र सिंह के अनुसार सपेरा जाति में रोजगार के लिए सांप की भूमिका सबसे अहम होती है। इसलिए विवाह के समय दहेज में अजगर, नाग, बीन और पिटारा देने की प्रथा है, जो लंबे समय से चली आ रही है और आज भी बरकरार है। तमिलनाडू में इरलू जनजाति के सपेरे जब पोंगल त्यौहार के समय समूह में जमीन के अंदर से सांप पकडऩे जाते हैं, तो सांप की ही तरह सर्पाकार चलते हैं। सपेरों के विषय में रोचक जानकारी देते हुए एक विशेषज्ञ श्री गुरमेल सिंह ने बताया कि, सांपों की घटती संख्या और वन्य जीव संरक्षकों के चलन कम होता चला जा रहा है। ऐसे में सपेरों के लिए आजीविका जुटाना भी मुश्किल है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए, सपेरों को सरकार की ग्रामीण पर्यटन योजना में शामिल किया गया है। योजना के तहत सपेरे ग्रामीण परिवेश को देखने के इच्छुक विदेशी पर्यटकों को सजी धजी भैंसा बुग्गी पर बिठाकर उन्हें अपनी बीन से कर्णप्रिय धुनें सुनाते है और हरे भरे खेतों के बीच बने कच्चे रास्तों से गुजरते हुए विदेशी मेहमान परंपरागत वेशभूषा पहने लोक कलाकारों के नृत्य और ठेठ भारतीय भोजन का आनंद लेते हैं। बिजनौर के दारानगर गंज के निवासी सपेरे भूरेनाथ का कहना है, कि आजकल सांपों को पकडऩे पर रोक और गांव-गांव में मनोरंजन के बढ़ते साधनों के कारण उनका पुश्तैनी धंधा चौपट हो गया है। यही वजह है कि कई सपेरे सांपों से अपना नाता तोड़कर मेहनत मजदूरी में लग गए। भूरेनाथ का कहना है, कि सरकार को सपेरों के कल्याण के लिए प्रयास करने चाहिए क्योंकि यह देश की एक प्राचीन धरोहर के रखवाले है, लेकिन इस दिशा में किसी में किसी तरह का सहयोग न मिलने के कारण आज लाचार होकर रह गए है। उनका कहना है कि, अगर यही हालत रही तो, वह दिन दूर नहीं जब नाग, बीन, पिटारी और सपेरे सब इतिहास की चीज बनकर रह जाएंगे।

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