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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पंचायती राज की प्रासंगिकता

29 जनवरी 2010
प्रस्तुति: डॉ. भरत मिश्र प्राची(प्रैसवार्ता)
राजस्थान में पंचायती चुनाव होने जा रहे है। कुछ जगह पर चुनाव हो चुके है तो कुछ जगह पर होने वाले है। इस चुनाव प्रचार के दौरान उभरती पृष्ठभूमि को आसानी से देखा जा सकता है। जहां महिला आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ रही महिला प्रत्याशी के प्रचार में मुख्य रुप से संबंधित महिला के पति, देवर, ससूर, ज्येष्ठ आदि को आज भी देखा जा सकता है। चुनाव उपरान्त जब ये प्रचारक महिला प्रत्याशी की जगह मुख्य रुप से अपनी भूमिका पूर्व की भॉति उभारते पाये जाए तो इस हालात में पंचायती राज के बदले इस स्वरूप की प्रासंगिकता का औचित्य क्या रह जायेगा, विचार किया जाना चाहिए। नारी शक्ति स्वरूप साधना की सशक्त अवधारणा है। जहां प्रजनन एवं विकास दोनों ही समाहित हैं। नारी देवी है, देवी की शक्ति से सभी भलीभांति परिचित है। फिर भी आज नारी ही सबसे ज्यादा प्रताडि़त है। इस प्रताडऩा में नारी की सहजता समायी है। पर जब उसकी सीमा समाप्त हो जाती है तब उसके प्रचण्ड रूप को भी देखा जा सकता है। जहां विनाश की अवधारणा स्वत: जनित हो जाती है। कहा गया है कि जहां नारी की पूजा होती है वहंा देवताओं का वास होता है। वेद पूरित इस वाक्य की आज जो दुर्दशा हो रही है उसे नकारा नहीं जा सकता। पूजा योग्य नारी ही आज सबसे ज्यादा उपेक्षित एवं कुंठित है। कन्या-भ्रुण हत्या से लेकर दहेज की बलिवेदी की शिकार महिलायें आज हर तरह के शोषण की गिरफ्त में देखी जा सकती है। जिन्हें देवी स्वरूप मानकर पूजे जाने की बात हर कौम एवं हर धर्म में चरितार्थ है। इस तरह के हालात में नारी जहां अपनी अस्मिता की रक्षा कर पाने में अपने आपको अबला की श्रेणी में रखी हुई है, पंचायती राज में आज भी इस तरह के परिदृश्य उभर कर सामने आ रहे है जहां नारी सामने न होकर पीछे खड़ी है। इस तरह के हालात में पंचायती राज के वास्तविक स्वरुप की परिकल्पना कैसे पूरी हो पायेगी, विचार किया जाना चाहिए। भारत गांवों का देश है। जहां आज भी देश की अधिकांश आबादी रहती है। भारतीय लोकतंत्र में पंचायती राज एक सुदृढ़ एवं मजबूत कड़ी की आधारशिला है। जिससे भारतीय गांव जुड़े हुए हैं। नीचे स्तर की भी बात सुनी जा सके एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बेहतर विकास हो सके इस उद्देश्य से पंचायती राज की यहां भारतीय लोकतंत्र में व्यवस्था की गई। परन्तु आज भी देश के अधिकांश गांव वर्तमान सुविधाओं से वंचित हैं। जहां शिक्षा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में विशेष रूप से आज भी अनेक गांव अभावग्रस्त हैं। जिसके कारण विकास की सारी अवधारणाएं यहां प्राय: मृतप्राय सी दिखती है। पंचायती राज की शुरूआत इस दिशा में बेहतर सुधार के उद्देश्य से की तो गई परन्तु इसका भी लाभ ऊपरी स्तर पर फैले नेतृत्व में समा कर रह गया। जहां पंचायती राज की दिशा व दशा की भूमिका में थोड़ा बहुत सुधार हुआ है वहां का परिदृश्य आज अन्य जगहों से बेहतर देखा जा सकता है। गांवों में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध कराने के दृष्टिकोण से पंचायती राज का शुभारंभ तो हुआ परन्तु इस कड़ी में गांव और भी पिछड़ते चले गये जहां की वास्तविकता आधुनिकता के चक्कर में उलझकर रह गयी। गांव के कुएं सूख गये या उनके जल दूषित हो चले, खेत-खलिहान सिमट कर रह गये, पशुधन समाप्त हो गये,। विद्यालय खुले पर शिक्षा व शिक्षक दोनों नदारद मिले।, सड़कें बनी पर टूटने के बाद फिर जुड़ न सके।, चिकित्सा केन्द्र भी खुले पर कोई चिकित्सक अभावग्रस्त इलाके में रहने को तैयार नहीं।, बिजली की लाइनें दिखाई दे रही है पर बिजली नहीं, लालटेन तो पहले ही गायब हो गयी। आज इस विकसित युग में भारत के अनेक गांव अंधेरे एवं समस्याओं के बीच जूझ रहे हैं। जहां न तो पानी है, न बिजली, न शिक्षा न स्वास्थ्य, न सड़कें। इस दिशा में बेहतर सुधार के उद्देश्य से ही तो पंचायती राज की आधारशिला रखी गयी परन्तु इस तरह की योजनाएं राजनीति के बीच उलझकर दूषित हो गयी। इस तरह की पृष्ठभूमि में सबसे ज्यादा शोषित रही है ग्रामीण महिलाएं, जिनके विकास हेतु पंचायती राज में इन्हें अग्रणी भूमिका में उतारने का प्रयास तो किया गया परन्तु भारतीय परिवेश में शिक्षा के क्षेत्रा में फैली अपरिपक्वता एवं घूंघट प्रथा की शिकार महिलाओं की पृष्ठभूमि सकारात्मक नहीं बन पाई। जिसके कारण आंचल पकड़कर नेतृत्व संभालने की बागडोर कमजोर व उद्देश्यहीन बनी हुई है। पुरूष व महिला दोनों ही परिवार की सशक्त धुरी है। जिससे समाज व देश का निर्माण होता है। दोनों की समान भागीदारी होते हुए भी निर्माण कार्य में महिला की पृष्ठभूमि अग्रणी मानी जा सकती है। जिसकी गोद से समाज का नवशिशु पल्लवित होता है। उसके विकास की अवधारणाएं नारी की गोद में ही समायी है। फिर भी पुरूष प्रधान व्यवस्था से ग्रसित नारी इस तरह के महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि से आज अलग-थलग खड़ी पराधीन समझी जा रही है। पंचायती राज में आज ये पंच, सरपंच, मुखिया आदि पदों पर चयनित होकर भी स्वतंत्र पृष्ठभूमि में उभरती नजर नहीं आ रही है। नारी के ऊपर पुरूष वर्ग के पसरते प्रभाव को इस दिशा में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जिसके कारण पंचायती राज में नारी की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा है। इस तरह का प्रसंग निश्चित रूप से वातावरण को दूषित कर रहा है। जहां पंचायती राज की अवधारणा समाप्त होती जा रही है। और तो और , जहां प्रशासनिक तौर भी इस तरह के अवैध प्रसंग को मान्यताएं मिली हुई है, कैसे पंचायती राज का वास्तकि स्वरुप निर्धारित हो पायेगा, विचारणीय पहलू है। नारी पुरूष से ज्यादा निर्णायक एवं निर्भय पृष्ठभूमि में अपने आपको उतार सकती है। बशर्ते वह अपने आप में छिपी वास्तविक ताकत को पहचानने एवं स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बनाने का प्रयास करे। इस कड़ी में पंचायती राज से जुड़े तमाम व्यवस्थाओं को अपने सही रुप में उतरना होगा।चुनाव अपरान्त विजयी प्रत्याशी को ही उचित स्थान एवं संबोधन मिलना चाहिए। पूर्व की भांति महिला प्रत्याशी के प्रचारक पति, ससूर, जेठ आदि को प्रतिनिधि के रुप में संबोधित किये जाने के परिवेश में बदलाव आना चाहिए।

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