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लाभ-तंत्र

29 जनवरी 2010

प्रस्तुति: डॉ. भरत मिश्र प्राची(प्रैसवार्ता)
'स्वार्थ लागि करे सब प्रीति' रामचरितमानस की यह पंक्ति वर्तमान परिवेश में हर जगह सार्थक सिद्ध हो रही है। महिला आरक्षण विधेयक संसद में लाने का परिवेश हो जहां पुरूष लॉबी के एकाधिकार टूटने का खतरा बना हुआ है या उच्च शिक्षा में आरक्षण विधेयक को लाकर बहुमत से पारित किये जाने का परिवेश हो, जहां वर्ग विशेष को अपने पक्ष में लाकर वोट राजनीति के लाभांश प्रसंग जीवित किये जाने का भरपूर प्रयास जारी हो या ऐन-केन-प्रकारेण सत्ता तक पहुंचने के बेमेल एवं अनैतिक पृष्ठभूमि बनायी जा रही हो या विकास के नाम विनिवेश प्रक्रिया के तहत स्वहित में धन उगाहे जाने की पद्धति अपनायी जा रही हो या जीवन के किसी भी क्षेत्र में अनैतिक रूप से धन बटोरने की प्रवृत्ति जारी हो, सब कुछ लाभ तंत्र की ही देन है। जहां हर एक ऐन-केन-प्रकारेण लाभ कमाने की योजना में अनैतिक रूप से शामिल है। ऐसे परिवेश में राष्ट्रहित एवं जनहित के मुद्दे का गौण हो जाना स्वाभाविक है। इस तरह के हालात में नैतिकता की बात करना या सोचना कुछ अटपटा सा ही लगता है। वैसे तो प्रवचन देने में हम किसी से पीछे नहीं है, पर करते वही है जहां स्वहित है। जहां हमारा पूर्णरूपेण लाभ दिखाई दे रहा है। अब हालात ये है कि 'अनुशासन पर बहस यहां बच्चे से बूढे तक करते हैं/आदर्श जीवन का सबक सभी एक-दूसरे को देते रहते हैं/पर अपनाये कौन इसे, सब नहले-दहले बन चले' लाभतंत्र का यह जीता-जागता उदाहरण है। इसी पृष्ठभूमि को व्यापकता से समझने के लिये जीवन के हर पहलू एवं हर क्रियाकलापों पर नजर डाले तो दूसरे के हित में स्वहित पहले से समाया नजर आयेगा। यही लाभतंत्र की विशेष उपलब्धि है। पूर्व में घटित सांसद एवं केन्द्रीय मंत्री शिबू सोरेन प्रकरण का प्रसंग जहां निजी सचिव की हत्या के मामले में मंत्री पद को छोड़ जेल तक जाना पड़ा। निजी सचिव की हत्या का परिवेश भी शिबू सोरेन के स्वहित अर्थात इस लाभतंत्र का प्रमुख हिस्सा है। जहां अपने आप को बचाने एवं स्वहित में पूर्व किये गये अनैतिक कार्यों के सत्य के उजागर हो जाने के भय से आज ये हालात उभरे जिसके कारण शिबू सोरेन को दागी परिवेश की जिन्दगी जीनी पड़ी। वैसे इस तरह के परिवेश से आज अनेक सांसद विधायक, जनप्रतिनिधि एवं शासकीय प्रतिनिधि गुजर रहे हैं। जिन पर अप्रत्यक्ष रूप से स्वहित में किये गये अनैतिक कार्यों का दाग लगा हुआ है। जिनके मामले न्यायालय की परिधि में विचाराधीन है। जनप्रतिनिधि बनने की हवस, सत्ता तक पहुंचने के जोड़-तोड़ के गणित में क्रय-विक्रय का स्वरूप, सामान्य जीवन से सत्ता तक पहुंचने के मार्ग में चुनावी प्रक्रिया से लेकर सरकार गठन के स्वरूप तक पक्ष-विपक्ष की पृष्ठभूमि निभाने के बीच किये गये अनैतिक कार्यों से जुड़ा होना, बूथ कब्जा, आतंकवादी प्रवृत्तियों की पहल, सांप्रदायिक वर्ग विभेद एवं दंगायी परिवेश, लेन-देन जैसे आर्थिक अपराध, हत्या व अपहरण जैसी अनैतिक गतिविधियां और अंत में आपसी तालमेल कर स्वहित में अर्थ/यश को उगाहे जाने मन:स्थिति आदि-आदि इस लाभ तंत्र की ही देन है। शिक्षा का क्षेत्र जो सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण परिवेश है, उस पर लाभ तंत्र के बढ़ते प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। जहां प्राचीन गुरूकुल के गुरू-शिष्य के बीच में जो आदर्श परंपरा कायम थी, जहां शिक्षा को दान समझा जाता रहा है आज इसी लाभतंत्र में वही शिक्षा व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी है। जिसके कारण गुरू शिष्य की आदर्श परम्परा हृास दिन-प्रतिदिन होता जा रहा है। शिष्य के मन में गुरू के प्रति आदरभाव का समाप्त होना एवं शिक्षा के मूल तत्वों से दूर होना लाभतंत्र की प्रमुख देन हैं। जहां गुरू गुड़ होते जा रहे हैं, चेला चीनी। इस दिशा में ट्यूशन की बढ़ती प्रवृत्ति, कक्षा से शिक्षकों की अनुपस्थिति, इर्द-गिर्द परिवेश पर प्रभावित अर्थ मूल्यांकन, बाल कंधों पर भारी बस्तों का बढ़ता बोझ, बढ़ी हुई फीस, सस्ती एवं अल्पज्ञान वाली पासकोर्स पुस्तकें, वनवीकसीरीज, आधारविहीन पाठ्यक्रम, गली-गली खुले विद्यालय-महाविद्यालय एवं स्वायत्तशाषी निजी विश्वविद्यालयों की बढ़ती संख्या आदि-आदि शिक्षा को वास्तविक स्वरूप से दूर कर बाजारवादी संस्कृति के बीच आज लाकर इस तरह खड़ा कर दिया है जहां शिक्षा का खुला व्यापार होने लगा है। यह लाभतंत्र की ही देन है। हर परिवेश पर आज बाजारवादी संस्कृति का हावी होना लाभतंत्र की प्रमुख देन है। जहां वास्तविक मूल्यों से परे होकर सभी स्वलाभ की दिशा में सोचते हैं एवं क्रियाशील दिखते हैं। वैसे लाभ की दिशा में सोचना एवं क्रियाशील होना गलत तो नहीं कहा जा सकता परन्तु लाभ कमाने की दिशा में नैतिकता को छोड़ अनैतिकता का दामन थामना गलत अवश्य है। और इस तरह की प्रवृत्तियां इस लाभतंत्र में ज्यादा उभरती दिखाई दे रही है जहां नैतिकता की जगह अनैतिकता ने ले ली है। जिसके प्रतिकूल प्रभाव हर दृष्टि से हर एक को अंतत: नुकसान पहुंचाते जा रहे हैं। बाजारवादी संस्कृति की तड़क-भड़क में वास्तविक मूल्यों का हृास होता जा रहा है। जहां आवरण पर आवरण चढ़े मिलते हैं। जहां सच्चाई तो दब जाती है, बनावटीपन छा जाता है। जहां गुणवत्ता नजरअंदाज होकर क्वालिटी में बदल जाती है। ये हालात आधुनिक लाभतंत्र के परिदृश्य है जहां स्वहित राष्ट्रहित एवं जनहित से सर्वोपरि बना हुआ है। इसी लाभतंत्र के परिदृश्य में 'दुनिया के मजदूरों एक हो' का नारा बुलंद करने वाले श्रमिक संगठन कभी भी एक मंच पर दिखाई नहीं देते। किसी के हाथ लाल झंडा है तो किसी के हाथ पीला तो किसी के हाथ हरा। अप्रत्यक्ष रूप से ये किसी न किसी राजनीतिक दलों की छत्रछाया में फलते-फूलते हैं। जिसके कारण मजदूरों की समस्या दूर होने के बजाय लाभ तंत्र के दायरे में उलझ कर रह जाती है। यहां भी मालिक-मजदूर, इम्प्लाई-एम्प्लायर, अधिकारी-कर्मचारी आदि की परिभाषा, कार्यशैली, सोच, संबंध एवं प्रभाव लाभतंत्र के चलते वास्तविक स्वरूप से दूर होकर गलत अवधारणा को जन्म देता है। जहां मधुर संबंध सामान्य स्थिति के बजाय आपसी तनाव, आरोप-प्रत्यारोप की स्थिति क्षण-प्रतिक्षण उभरती दिखाई देती है। आज देश की सरकारी संस्थाएं सार्वजनिक प्रतिष्ठान, सहकारी एवं गैरसरकारी समितियां, स्वयंसेवी संस्थाएं, उद्योग, बाजार, पत्र-पत्रिकाएं आदि सभी की सभी लाभतंत्र के उस भाग से इस तरह जकड़े हैं जहां स्वहित राष्ट्रहित एवं जनहित से सर्वोपरि परिवेश बना चुका है। लोकतंत्र के चारों सशक्त स्तम्भ, विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका एवं पत्रकारिता भी आज लाभतंत्र के इसी तरह पहलू से जुड़ चले हैं जिसके कारण इनका वास्तविक स्वरूप उजागर नहीं हो रहा है। इस तरह के परिवेश निश्चित रूप से किसी भी राष्ट्र की सम्प्रभुता की रक्षा कर पाने में सक्षम साबित नहीं हो सकते। लूट के बाजार में खड़े बेरोजगार, कन्या भ्रुण हत्या का परिवेश, सीमा से सेना की वापसी का प्रसंग, स्वार्थप्रेरित राजनीति से बदलता लोकतंत्र, आरक्षण का बढ़ता कदम, आतंकवाद की गूंज, राजनैतिक दलों की नीतियों में व्याप्त दोहरापन, भ्रष्टाचार का मौलिक अधिकार में उतरना, राज्यपाल की अप्रासंगिक पृष्ठभूमि, सरकारी /अर्द्धसरकारी विभागों/ संस्थानों की गिरती साख, लोकतंत्र में उभरता फासिज्म, मौत के सौदागरों का फैलता गोरखधंधा, राजनीतिक अपहरण, बाजारवादी संस्कृति का पनपना जैसे अनेक चर्चित प्रसंग आज लाभतंत्र के इस पहलू से पूर्णरूपेण प्रभावित हो रहे हैं जहां स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि बना हुआ है।

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