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सर्वगुणों के संगम:गुरू गोविंद सिंह

05 जनवरी 2010

प्रस्तुति: प्रेम फीचर्स
शाहे शहनशाह गुरू गोबिंद सिंह
दे कोई हो, काल कोई हो या समाज कोई हो, संतों की महिमा सदैव गायी जाती रही है। राष्ट्र की एकता और अखण्डता तथा भावात्मक एकता कायम रखने के लिए सिख गुरूओं ने ऐसी मिसाल पे की है कि जिसमें मानवीय समाज को अक्षुण्ण बनाने की परिकल्पना थी। जहां किसी प्रकार की ऊंच-नीच व वर्ग भेद नहीं था। वर्गहीन समाज एवं समूचा संसार, प्यार, एकता एवं विश्व बंधुत्व की डोर में बंध कर रहे, इसीलिए सिखों के दसवें महान गुरू व संत सिपाही गुरू गोविंद सिंह ने जोर देकर कहा कि-'मानस की जात सबै एकै पहचानबो' यही वजह है कि आज भी सिख पंथ में अरदास की परंपरा है व उसके अंत में जोर से यह उचारा जाता है कि- ''नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत का भला'' सिखों के धर्मगुरूओं ने अपने जीवन में उच्च आदर्शों व संकल्पों तथा अपनी सेवा से समाज के लिए शाश्वत् कार्य किये जिनमें कहा गया है- '' कोई बैरी नाहि बेगाना एक पिता एकस के हम बारिक मानस की जात सबै एकै पहचानबो एक ही सरूप सब एक जोत जानबो'' शहीद गुरू अर्जुन देव जी द्वारा संपादित श्री गुरू ग्रंथ साहिब आज भी विश्व में एकता का घोतक है। जिसमें भावात्मक एकता का पुट है। इसी ग्रंथ को गुरू गोविंद सिंह ने श्री हुजूर साहब (नान्देड़-महाराष्ट्र) में सन् 1708 ई. में गुरू गद्दी बख्श कर धर्म निरपेक्षता का सुंदर उदाहरण विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया था। सच तो यह है कि गुरू गोविंद सिंह न केवल सिख पंथ के ही गुरू थे, बल्कि वे महान युग प्रवर्तक भी थे। वे बहुमुखी व असाधारण प्रतिभा के धनी थे। वे कुशल राजनीतिज्ञ व समाज सुधारक भी थे तो निर्भीक योद्धा तथा दार्शनिक साहित्यकार भी थे। समस्त क्षेत्रों में समान रूप से प्रगति का बीड़ा उठाने वाले संतों की कड़ी में वे अकेले थे। जब मुगल साम्राज्य की अतुल्य सैन्य शक्ति व दमनकारी नीतियों से हिन्दू समाज व उसके राजा व प्रजा भयभीत थे तो ऐसी विषम परिस्थितियों में गुरू गोविंद सिंह ने अकेले ही इस दमन की चुनौती को स्वीकारते हुए असीम साहस, दृढ़ संकल्प शक्ति से समय की प्रबल धारा को एक नया मोड़ देकर 'खालसा पंथ' की स्थापना की। खालसा के रूप में गुरूजी ने एक महान शक्ति का सफल नेतृत्व किया, हालांकि उसका बीज तो गुरू नानक देव के समय में ही बोया जा चुका था। गुरू गोविंद सिंह धर्म युद्ध के प्रणेता थे, जिन्होंने युद्ध की विभीषिका को बढ़ावा नहीं दिया, बल्कि युद्ध का अंत किया था। उन्होंने अपनी वाणी में फरमाया है- 'पंथ चलाए जगत में, युद्ध करहि सब शांत' अर्थात् जब सभी शांति के उपाय समाप्त हो जाए तब हाथ में तलवार उठा लेना न्याय संगत है और गुरूजी ने इस कार्य को किया भी उन्होंने जफरनामा में कहा भी है- 'चूंकार अब हमा हीलते दर गुजरत, हलाल अस्त दुर्दन शमशीर दस्त' गुरू गोविंद सिंह जी ने सिद्धांतों व आदर्शों की लड़ाई लड़ी। धर्म की बलिवेदी पर उन्होंने अपने दादा, पिता तेल बहादुर वअपने चारों पुत्रों, शिष्यों व अपने प्राणों तक का बलिदान दिया था। उन्होंने खडग़ को नमस्कार करते हुए धर्म युद्ध में जूझने के लिए आदि शक्ति से भी वरदान मांगा था- ''देहि शिवा वर मोहि इहै, शुभ करमन ते कबहूं टरौं, जब आब की अऊध निदान बने, अति ही रण में तब जूझ मरौं'' गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने पूर्ववर्ती गुरूओं की भांति संपूर्ण मानव जाति को एकता के सूत्र में पिरोने का कार्य किया तथा मानवता का मार्ग प्रशस्त किया। गुरू जी ने निराश लोगों को ऐसी महान शक्ति प्रदान की, जिससे उनमें सामाजिक स्वतंत्रता, राष्ट्रीय महानता तथा गुरू नानक द्वारा प्रचारित भक्ति की शुद्धता के प्रतिजिज्ञासा की भावना पैदा हो। उन्होंने एक-एक सिख को सशक्त सिपाही बनने की प्रेरणा देते हुए कहा था- ''सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिडिय़न सूं मैं बाज उड़ाऊं, तां गोविंद सिंह नाम कहाऊं'' गुरू जी ने सिखों को हिदायत दी थी कि वे अमृतपान करें व साधारण जीवन में स्वच्छ बने रहें। गुरू जी ने कभी भी हिन्दू-मुस्लिम में फर्क न करते हुए विभिन्न वर्णों में एकता व भाईचारा को बढ़ावा दिया। उनके द्वारा स्थापित लोक राज्य सिद्धांत आज भी हमें विषम परिस्थितियों में जीने की प्ररेणा देता हैं। गुरू जी भले ही ज्योति ज्योत समा गये, लेकिन आने वाली पीढिय़ां हमेशा संतों की लंबी श्रृंखला में याद रखेगी कि इतिहास में एक संत शिरोमणि ऐसा भी था, जिसका नाम गुरू गोविंद सिंह था।

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