टीवी सीरियल की लाचार औरतें
08 जनवरी 2010
प्रस्तुति: स्मृति जोशी
यूँ तो हर धारावाहिक में टीआरपी बटोरने की ऐसी प्रतियोगिता चलती है कि एक धारावाहिक का पात्र जेल में तो सब धारावाहिक का कोई ना कोई पात्र जेल में, एक में हत्या तो सब में हत्या, एक में घर से निकाला तो सब में वही, एक में शादी तो हर सीरियल में मंडप तन जाते हैं। किन्तु पिछले कुछ दिनों से जो बात सबसे ज्यादा नागवार गुजर रही है वो यह कि तमाम धारावाहिकों के स्त्री पात्र बड़े ही अजीब ढंग से गढ़े जा रहे हैं। यहाँ या तो स्त्रियाँ चालाक और चालबाज है या फिर कमजोर और कुंठित। सकारात्मक रूप से चौकस और चतुर ना तो वे स्वयं हैं ना ही वे देखने वाली स्त्रियों को ऐसा कोई संदेश देती दिखाई पड़ती है। हर जगह रोना-धोना और गलतफहमियों का ऐसा वितृष्णा भरा माहौल है कि अन्तत: दर्शक किसी ना किसी 'सिटकॉम'(सिचुएशनल कॉमेडी) की शरण में जाना बेहतर समझता है। इन दिनों चल रहे तीन प्रमुख धारावाहिकों का जायजा लें तो कमोबेश यह स्थिति और स्पष्ट हो जाती है।माता-पिता के चरणों में स्वर्ग : इस धारावाहिक में एक सुहानी है और एक लोलिता है। दोनों देवरानी-जेठानी। सुहानी अव्वल दर्जे की आदर्श और अच्छी जबकि लोलिता उतनी ही धूर्त और दुष्ट। ये असमान्यताएँ इस हद तक कि एक अपनी चालाकियों को लगातार अंजाम देती चलती है और सुहानी इस हद तक सज्जन कि ना उसे पहचानती है ना पहचानने की कोशिश करती है। फलस्वरूप घर से निकाल दी जाती है और तो और अब तो वह अपनी जान से भी गई। एक एपिसोड में उसके अपाहिज पति शुभ को दुश्मन चाकू से मारने वाला है और तब तक सुहानी बस बदहवास-सी ही बताते हैं।
वास्तविक जीवन में यह संभव है कि स्त्री अपनी सुध-बुध खो दें लेकिन धारावाहिकों के पात्र इतने चतुर और समझदार तो बताए ही जा सकते हैं कि दर्शक उनसे ही प्रेरणा ले सकें। मगर नहीं यहाँ तो लाचारी, बेबसी, मजबूरी, निरीहता और कमजोरी का यह आलम है कि घर की औरतें भी इन स्त्री पात्रों के लिए मन्नते माँगने लगती है। एक अजीब किस्म की भयावहता और भीरूपन इन धारावाहिकों में परोसा जा रहा है। सवाल यह नहीं है कि रिमोट किसलिए है, चैनल बदल लो। सवाल यह है कि जिस माध्यम में इतनी ताकत है कि वह दर्शकों पर गहराई से और तीव्रता से असर कर सकता है, उसकी नैतिक जिम्मेदारी क्या है? क्या हम घर बैठी औरतों को इस तरह की स्थितियों से निपटने के गुर नहीं सिखा सकते? ताकि ऐसी परिस्थिति आने पर उसे अपने 'प्रिय' धारावाहिक की नायिका याद आ जाए कि कैसे उसने चतुराई से ऐसे हालात से निपटा था। मगर नहीं, यहाँ तो औरतों को जुल्म सहने और कमजोर बनाने की ट्रेनिंग दी जा रही है।
इसी धारावाहिक के एक एपिसोड में गायत्री नामक लड़की अपने पति के रहस्य को जानने के लिए उसका पीछा करती है। अचानक धारावाहिक इतना डरावना और विभत्स हो जाता है कि लगने लगता है कहीं 'श श्श कोई है' का एपिसोड तो गलती से शुरू नहीं हो गया। या कहीं इस एपिसोड का निर्देशन रामसे ब्रदर्स ने तो नहीं किया?
बालिका वधु: नि:संदेह इस धारावाहिक के विरूद्ध कोई भी कुछ भी पढ़ना या सुनना नहीं चाहेगा। यहाँ स्त्री पात्र कमजोर तो नहीं है लेकिन कभी-कभी परिस्थितियाँ हद से ज्यादा असामान्य बना कर पेश कर दी जाती है। इस धारावाहिक का एक फंडा है पहले किसी पात्र को दर्शकों का दुलारा बना दो और फिर अचानक उसे ऐसी हालात में डाल दो कि दर्शक सी-सी कर उठें। पहले सुगना को लगातार अभागन दिखाया गया जैसे ही उसके हालात बदले फिर 'गहना' को पकड़ा उसके लिए दर्शकों का झोली भर-भर प्यार लूटा।
यहाँ अक्सर खून-खराबा ऐसे होता है कि लगता नहीं कि पारिवारिक धारावाहिक देख रहे हैं। गर्भवती सुगना कभी मंदिर की सीढि़यों से लुढ़की तो कभी ताऊसा के भेजे गुंडे उस पर चाकू से वार करते दिखाए गए। वो तो अगले एपिसोड में पता चला कि श्याम वक्त पर आ गया था और बच्चा व सुगना दोनों सलामत है। घर की महिलाओं के मुँह खुले के खुले रह गए। अब अगर कोई दिल की मरीज सुगना की फैन होती तो वो तो 'गई' ही समझों।
इसी धारावाहिक के एक एपिसोड में गायत्री नामक लड़की अपने पति के रहस्य को जानने के लिए उसका पीछा करती है। अचानक धारावाहिक इतना डरावना और विभत्स हो जाता है कि लगने लगता है कहीं 'श श्श कोई है' का एपिसोड तो गलती से शुरू नहीं हो गया। या कहीं इस एपिसोड का निर्देशन रामसे ब्रदर्स ने तो नहीं किया?
बालिका वधु: नि:संदेह इस धारावाहिक के विरूद्ध कोई भी कुछ भी पढ़ना या सुनना नहीं चाहेगा। यहाँ स्त्री पात्र कमजोर तो नहीं है लेकिन कभी-कभी परिस्थितियाँ हद से ज्यादा असामान्य बना कर पेश कर दी जाती है। इस धारावाहिक का एक फंडा है पहले किसी पात्र को दर्शकों का दुलारा बना दो और फिर अचानक उसे ऐसी हालात में डाल दो कि दर्शक सी-सी कर उठें। पहले सुगना को लगातार अभागन दिखाया गया जैसे ही उसके हालात बदले फिर 'गहना' को पकड़ा उसके लिए दर्शकों का झोली भर-भर प्यार लूटा।
यहाँ अक्सर खून-खराबा ऐसे होता है कि लगता नहीं कि पारिवारिक धारावाहिक देख रहे हैं। गर्भवती सुगना कभी मंदिर की सीढि़यों से लुढ़की तो कभी ताऊसा के भेजे गुंडे उस पर चाकू से वार करते दिखाए गए। वो तो अगले एपिसोड में पता चला कि श्याम वक्त पर आ गया था और बच्चा व सुगना दोनों सलामत है। घर की महिलाओं के मुँह खुले के खुले रह गए। अब अगर कोई दिल की मरीज सुगना की फैन होती तो वो तो 'गई' ही समझों।
आजकल खजान सिंह,यानी अपनी आनंदी के पिता चपेट में है। महावीर सिंह ने उसके खेत में हथियार रखवा कर उसे गिरफ्तार इसलिए करवाया कि इससे 'दादीसा' यानी कल्याणी देवी की बदनामी होगी। अब ये बात कुछ हजम नहीं हुई। भलेमानुस, दुश्मनी निभाने का ये कौन सा तरीका है? धारावाहिक की लोकप्रियता से यह डर लगने लगा है कि कहीं दर्शक भी अपनी दुश्मनी निभाने के लिए इन तरीकों पर हाथ ना आजमाने लगे। और कहानी में ट्विस्ट की हद कि कल्याणी के दो बेटों में से एक महावीर सिंह का है। अब आप सिर धुनते रहें कि जिस महावीर से कल्याणी इतनी नफरत करती है उसके बेटे को इतनी प्यार से क्यों पाला? बहरहाल, हमारा विषय यह नहीं है।
बिदाई- सपना बाबुल का: यहाँ तो अतिरंजना की भी अति हो गई है। नायिका साधना इतनी सहनशील और सत्यवादी है कि आज के जमाने में इस प्रकार की सहनशीलता, असामान्यता की श्रेणी में रखी जा सकती है। एपिसोड-दर-एपिसोड उस पर अत्याचार होते रहते हैं और वह लगातार-लगातार रोती रहती है। इस पात्र को अगर पुराने एपिसोड में देखा जाए तो महसूस होगा कि बेहद खूबसूरत से चेहरे वाली इस कन्या को धारावाहिक वालों ने रूला-रूला कर कैसा कर दिया।
यहाँ भी पहले रागिनी को उसके काले रंग की वजह से सहानुभूति बटोरने में लगा दिया फिर जो सुंदर थी यानी की साधना तो उसकी किस्मत को ग्रहण लगा दिया। जब-तब उसे गुंडे छेड़ देते हैं और कोई ना कोई मर्द आकर मदद करता है। पहले आलेख के मित्र ने बचाया था। बाल-बाल बची। आजकल उसका देवर रणबीर उसकी इज्जत बचाने के 'जुर्म' में जेल में है। आरोपों से घिरी हुई साधना दर-दर की ठोकरें खा रही है।
प्रश्न यह है कि धारावाहिक के इन पात्रों में सहजता क्यों नहीं है? परिस्थिति के समक्ष इनका 'एटिट्यूड' इतना 'एबनॉर्मल' क्यों होता है? यहाँ एक मालती है जो मूर्ख और मतलबी है। अवनि है जो लालची है। वसुंधरा है जो घमंडी है। कभी-कभी तो लगता है सीधे-सच्चे पात्र अब गढ़े ही नहीं जा रहे हैं। सीधी-सच्ची कहानी की जैसे किसी को जरूरत ही नहीं। रोचकता के नाम पर सनसनी और रिश्तों के नाम पर जालसाजी। हत्या, हिंसा, धोखाधड़ी और लंपटता के बीच दो छोरों पर खड़ी दो अजीब तरह की औरतें। एक अति सज्जन एक अति दुर्जन। चलिए यहाँ तक भी बर्दाश्त था मगर यह तो कतई और कदापि बर्दाश्त से बाहर है कि एक स्त्री को उसके मान-सम्मान, जान और अस्तित्व की रक्षा के लिए भी किसी का मोहताज बताया जाए।
दिमागी स्तर पर उसे इतना कमजोर बताया जाए कि उसके सामने अनहोनी हो और वह बस रोती-धोती रहे। तत्काल कोई प्रतिक्रिया ही व्यक्त ना कर पाए। यहाँ तक कि कोई सक्रियता नहीं, कोई समझदारी नहीं। और तो और मदद के लिए गुहार लगाना भी इन पात्रों को नहीं आता है। थोड़ा उम्मीद बंधी थी धारावाहिक 'प्रतिज्ञा' से मगर वह भी सस्ते ड्रामेबाजी का शिकार हो गया। एक चाँटा मारने पर इतनी मुसीबतें कि कोई लड़की हिम्मत ही ना कर पाए ऐसे कदम की।
शहर में बढ़ते अपराधों के बीच, जरूरत है ऐसे स्त्री पात्रों को गढ़ने की, जो घर बैठी महिलाओं में छद्म डर रोपित करने के बजाय उन्हें मानसिक स्तर पर सुदृढ़ बनाए। इन धारावाहिकों का इतना व्यापक प्रभाव है कि घर के जरूरी काम इनके प्रसारण समय के अनुसार तय किए जाते हैं। इसी वजह से क्या एक बार इनके निर्माता-निर्देशक यह महसूस नहीं कर सकते कि अपने पात्रों को असामान्यताओं के दलदल से निकाल कर देश भर की महिलाओं को सशक्त बनाने की जिम्मेदारी निभाएँ।