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विनोबा, गांधी और ध्यान-ओशो

18 मार्च 2010
प्रश्न--निर्विचार कितनी देर तक रहा जाए, क्या चौबीस घंटे तक रहा जाए?
उत्तर--नहीं, चौबीस घंटे की बात नहीं है। अगर दस मिनिट भी परिपूर्ण निर्विचार में जा सकते हैं आप तो चौबीस घंटे धीरे-धीरे आप पाएंगे सब काम करते हुए--बात करते हुए, बोलते हुए, भीतर एक शून्य स्थापित बना रहेगा। एक बारगी थोड़ा सा समय तोड़कर चौबीस घंटे में आधा घंटा, पंद्रह मिनट। उस पंद्रह मिनट में प्राथमिक रूप से क्रियाएं छोड़कर शून्य में जाना पड़ता है, पहले पहले। और जब एक दफा शून्य का अनुभव हो गया तब तो क्रियाओं के बीच भी शून्य में आ जा सकता है। चौबीस घंटे पड़ा नहीं रहना है, आधा घंटा जरूर पड़ा रहना है शुरुआत में। वह इसलिए कि काम में अगर हम बहुत व्यस्त हैं तो विचार को छोडऩा कठिन होगा शुरू में। विचार छोडऩा ही कठिन है। फिर काम में और व्यस्त थे और काम के कारण ही हममें विचार चलते हैं। तो छोडऩा कठिन होता है। इसलिए शुरुआत में आधा घंटा निष्क्रिय ध्यान करना है, कोई क्रिया नहीं कर रहे हैं हम, चुपचाप पड़े हुए हैं, सिर्फ विचार को शून्य का भाव कर रहे है, सिर्फ विचार को शून्य में ले जाने का भाव कर रहे हैं। जब आधा घंटा निष्क्रिय ध्यान आ जाए, निष्क्रिय शून्यता आ जाए फिर सक्रिय ध्यान करना चाहिए। फिर क्रिया कर रहे हैं और साथ में चित्त शून्य कर कहे हैं, इसका उपाय भी कर रहे हैं। चल रहे हैं साथ-साथ--चल भी रहे हैं और चित्त शून्य रहे, इसका भी भाव कर रहे हैं। खाना खा रहे हैं, खाना भी खा रहे हैं और चित्त शून्य में है, इसका भी भाव कर रहे है। फिर धीरे-धीरे वह जो निक्रियता हमें उपलब्ध हुआ उसका उपयोग सक्रियता में करना होता है। और जब वह सक्रिय रूप से भी पूरा हो जाए तो जानना चाहिए वह स्थित हो गया है। जब वह चौबीस घंटे सतत बना रहे, उठते बैठते, सोते जागते स्थिति बनी रहे तब जानना चाहिए वह सक्रिय ध्यान उपलब्ध हो गया। अगर सक्रिय ध्यान उपलब्ध हो जाए तो जीवन में अदभुत आनंद का अनुभव होगा।
प्रश्न-क्रियाओं में भी जागरूक होना है?
उत्तर-ध्यान का प्रयोग जागरूकता ही है- समस्त क्रियाओं के प्रति, चित्त की क्रियाओं के प्रति भी। शून्य में जाने का माध्यम भी जागरूकता ही है, जैसे आधा घंटा निष्क्रिय रहेंगे तो आप क्या करेंगे, उस आधा घंटा में चित्त में आपके जो भी विचार चल रहे हों उनके प्रति केवल जागरूक होना है, केवल साक्षी होना है। और क्या करिएगा? साक्षी भर हो जाना है, देखते रहे चुपचाप वह चले। लेकिन हमारे देखने में बाधा आती है, हम तल्लीन हो जाते हैं, साक्षी नहीं रह पाते। हम कब उन्हीं विचारों में एक हो गए उसका पता नहीं रहता है। यह बोध मिट जाता है, मूर्च्छा आ जाती है। एक विचार आया मन में, कोई स्मृति आयी। हम देखने वाले नहीं रह जाते, उसी विचार और उस प्रवाह के हिस्से हो-यह मूर्च्छा है। और इसके विपरीत जागरूकता है कि हम उसके हिस्से नहीं हो रहे। विचार आ रहा है, हम ऐसे ही देख रहे हैं जैसे हम पर्दे पर फिल्म देखते हैं। हम चुपचाप देख रहे हैं। हम कोई उसके साथ आइडेंटिटी नहीं कर रहे हैं अपने को, अपने को जोड़ नहीं रहे हैं। हम खड़े हैं, और हम देख रहे हैं। थोड़े दिन के अभ्यास से यह भाव होना आसान हो जाएगा। अभी तो एकदम से दिक्कत होती है क्योंकि क्षण भर हम खड़े रहेंगे, फिर हमको होश आएगा कि अरे, हम उसी में संलग्न हो गए! तो निरंतर इसका उपयोग करने से आधा घंटा रोज-कुछ ही दिनों में आधा घंटे में तो स्पष्ट रूप से आप जागरूक रह पाएंगे। और जब आधा घंटे में जागरूक रह पा सकते हैं तो फिर उसका विकसित प्रयोग भी है। धीरे-धीरे क्रियाओं में भी और तब क्रियाओं में भी जागरूकता आ जाए। गांधी जी के पास शुरू-शुरू में विनोबा जी गए थे। विनोबा जी में अपनी एक बात है कि वह किसी भी काम को परिपूर्ण कुशलता से करन-इनको हरेक बात में वैसा ध्यान रहता है। जो भी काम करना है उसकी पूरी कुशलता पानी है। जब उन्होंने चर्खा कातना शुरू किया तो उन्होंने इतनी अच्छी पोनी बनायी कि गांधी जी दंग रह गए। उन्होंने कहा कि इससे अच्छा पोनी बनाने वाला हमारे पास कोई आदमी नहीं है। फिर उन्होंने खर्चे में भी इतने सुधार किए कि गांधी जी दंग रह गए। फिर वह सूत भी इतना महीन कातने लगे कि गांधी जी ने कहा कि यह सूत कातने का आचार्य है। यह सब होने के बावजूद विनोबा जी ने गांधी से पूछा कि मैंने सबसे अच्छी व्यवस्था कर ली, चर्खा मेरा आपसे बेहतर हो गया है। मेरी पोनी आपसे अच्छी हो गयी है। मेरी कातने में कुशलता आ गयी है लेकिन मेरा अपना धागा टूट क्यों जाता है? और आपका धागा खराब पोनी में भी नहीं टूटता। गांधी जी ने कहा, उसका संबंध चर्खे से नहीं, उसका संबंध चित्त से है। तुम स्मरण रखना, जब तुम मूर्छित हो जाओगे तभी धागा टूट जाएगा। धागे को चला रहे हो, चित्त कहीं और चला गया, धागा टूट जाएगा। गांधी जी ने कहा, मैं अमूर्छित कातता हूं। जब कात रहा हूं तक चित्त में और कोई विचार ही नहीं है, बस कातने की क्रिया भर के प्रति जागरूकता रह गयी है और कात रहा हूं। न चित्त कुछ सोच रहा है, न विचार कर रहा है, न कोई स्मृति आ रही है, न कोई भविष्य की और कल्पना बन रही है। बस चर्खे के उस कातते धागे कि अतिरिक्त मेरे चित्त में उस समय कुछ भी नहीं है। सिर्फ धागा कत रहा है और मैं हूं। धागा नीचे जा रहा है और मैं हूं, धागा ऊपर जा रहा है और मैं हूं। मैं केवल एक देखने वाला मात्र रह गया हूं और धागे की क्रिया चल रही है। क्रिया है और भीतर जागरूकता है इसलिए धागा नहीं टूटता। गांधी जी इसीलिए बाद मग अपने चर्खे कातने की प्रार्थना कहने लगे, ध्यान कहने लगे। वह कहने लगे मेरा ध्यान तो चर्खा कातने में ही हो जाता है। अगर हम बुद्ध महावीर को समझें तो हम हैरान हो जाएंगे कि चौबीस घंटे की क्रियाएं ध्यान में उठती हैं। वे जो भी कह रहे हैं वह ध्यान ही होता है। क्रिया कर रहे हैं, चित्त परिपूर्ण शांत है और जागरूक है। हमारा जीवन इस तरह के ध्यान के बिलकुल विपरीत है। हम चौबीस घंटे मूर्च्छा की तलाश कर रहे हैं। चौबीस घंटे हम किसी तरह का इंटाक्सिकेंट खोज रहे हैं--चाहे सिनेमा खोजते हों, चाहे गीत सुनते हों वहां खोजते हों, चाहे ग्रंथ पढ़ते हों, वहां खोजते हों, चाहे मंदिर में जाकर भजन कीर्तन करते हो वहां खोजते हों। हम चौबीस घंटे यह खोज रहे हैं कि किसी तरह मैं अपने को भूल जाऊं। और जहां-जहां हम अपने को भूल जाते हैं, कहते हैं बड़ा सुख आया। असल में हमें अपना खुद का स्मरण बहुत दुखद है और हमारा होगा, हमारा एक्जिस्टेंस ही दुख है। हम सब पच्चीस रास्ते से खोज रहे हैं। वह रास्ते फिर चाहे कोई भी हों। जहां-जहां हमको थोड़ी देर का तल्लीनता आ जानी है, हम अपने को भूल जाते हैं। वहीं हमको सुख मालूम होता है। ध्यान तो बिलकुल विपरीत है। ध्यान का कहना है, जहां-जहां हमें तल्लीनता है, वहीं-वहीं हम मूर्छित हैं। किसी में तल्लीन नहीं होता है, समस्त के प्रति जागरूक होना है।

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