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आयुर्वेद स्वाधीनता पश्चात जितनी सरकारी सरक्षण की दरकार थी उतनी नहीं हुई हासिल: डा.बलदेव

28 दिसंबर 2009

सिरसा(सिटीकिंग) आयुर्वेद को स्वाधीनता के बाद जितनी अहमियत व सरकारी संरक्षण की दरकार थी, वह उसे आज तक हासिल नहीं हुआ। नतीजतन हमारे पूर्वजों द्वारा विकसित यह चिकित्सा पद्धति न तो उतनी लोकप्रिय हो पाई और न ही इसके विस्ता के लिए कोई ठोस आधुनिक शोधकार्य हुए हैं। यह कहना है जाने माने आयुर्वेद विशेषज्ञ और जयपुर स्थित राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान के एसोसिएट प्रोफेसर डा। बलदेव कुमार का। मूलत: हरियाणा के निवासी डा. कुमार चौधरी देवीलाल विश्वविद्यालय के सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम वेबवार्ता में केंद्र निदेशक वीरेंद्र सिंह चौहान के साथ पत्रकारिता के विद्यार्थियों और रेडियो श्रोताओं से बातचीत कर रहे थे। श्रीकृष्ण राजकीय आयुर्वेद महाविद्यालय कुरूक्षेत्र की डा. हेतल दवे ने भी इस कार्यक्रम में शिरकत कर आयुर्वेद रूपी प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला। जयपुर से वेबकांफ्रेंसिंग के जरिए लोगों से रूबरू हुए डा. बलदेव कुमार ने कहा कि एलौपैथी के मुकाबले आयुर्वेद की दशा का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अपनी डिग्री में आधारभूत शल्यक्रिया का अध्ययन करने या फिर शल्यक्रिया में स्नातकोत्तर उपाधि पाने के बावजूद आयुर्वेद के विशेषज्ञों को सर्जरी करने का अधिकार नहीं है। ऐसे में समय की मांग है कि सरकार एक ओर से इस चिकित्सा पद्धति के विस्तार के लिए अधिकाधिक संसाधन मुहैया कराए, साथ ही आयुर्वेद के विशेषज्ञों को भी शल्यक्रिया करने का अधिकार दे।डा. कुमार ने कहा कि आयुर्वेद को लोकप्रिय बनाने में स्वामी रामदेव सरीखी हस्तियों द्वारा जो भूमिका अदा की जा रही है, वह सराहनीय है। मगर सरकारी समर्थन और लोगों में जागरूकता लाए बगैर पूर्वजों से विरासत में मिली इस ज्ञान-संपदा का लाभ लेने से भारत के अधिकांश लोग यूं ही वंचित रह जाएंगे। समाजसेवी सुरेंद्र भाटिया के सवाल के जवाब में डा.कुमार ने कहा कि आयुर्वेद व आयुर्वेदिक औषधियों के बारे में कुछ भ्रांतिया आम लोगों में व्याप्त हैं जिन्हें निर्मूल करने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि इस पद्धति में उपयोग होने वाली दवाएं हमेशा ही असर करने में वक्त लेती हैं। बहुत से मामलों में दवा बहुत तीव्रता के साथ भी अपना असर दिखाती हैं। इसी प्रकार यह धारणा भी सही नहीं है कि तमाम आयुर्वेदिक दवाएं बहुत मंहगी हैे और आम आदमी की पंहुच से बाहर हैं। कुछ दवाएं एलोपैथी में भी मंहगी हैं, कुछ उस तरह की स्थिति कुछ आयुर्वेदिक दवाओं के बारे में भी हो सकती है। रतिया के राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य आर। के.शर्मा साइल ने इस अवसर पर अच्छी आयुर्वेदिक ओषधियों की उपलब्धता पर सवाल उठाया और ऐसे चिकित्सकों के खिलाफ कार्रवाई की आवश्यकता जताई जो आयुर्वेद के नाम लोगों को ठगने का कोई मौका नहीं चूकते।पत्रकारिता के विद्यार्थी रोशनलाल और सुरजीत नेहरा के सवालों के जवाब में डा.कुमार और डा. हेतल दवे ने कहा कि आयुर्वेद का इतिहास ईसा से कई सदी पहले का है। उन्होंने कहा कि आयुर्वेद स्वस्थ जीवन जीने की कला सिखाता है। एक सवाल के जवाब में डा. हेतल ने कहा कि आयुर्वेद में खाने के बाद पानी पीने को विष पीने सरीखा करार दिया है। भोजनांते विषं वारि और भोजनमध्ये बलप्रदम के हवाले से उन्होंने पानी के बारे में नियमों की कड़ाई से अनुपालना की वकालत की। उन्होंने कहा कि स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन प्रात:काल तांबे के पात्र में रख छोड़े गए पानी का सेवन करना चाहिए। इसे उष:पान कहते हैं। उन्होंने कहा कि दिन में दो बार भोजन करना श्रेष्ठ हैं और दो बार के भोजन के बीच इतना अंतर अवश्य हो कि खाया गया भोजना नए भोजन के खाए जाने से पहले पूरी तरह पच गया हो। इसी क्रम में उन्होंने सूर्योदय से पूर्व जागने के शास्त्रीय महत्व पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि जोड़ों के दर्द समेत कई ऐसी व्याधियां हैं जिनमें आयुर्वेद का मुकाबला कोई चिकित्सा पद्धति नहीं कर सकती। आवश्यकता है तो इस बात की कि आमजन में इस पद्धति को और लोकप्रिय बनाया जाए।

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