स्वामी दयानंद के जीवन पर विशेष बातचीत
09 फरवरी 2010
स्वामी दयानंद के जीवन पर प्रकाश डाले?
त्याग, सेवा व उदारता की प्रतिमूर्ति स्वामी दयानंद जी का जन्म गुजरात के टंकारा के मौरवी ग्राम मे एक ब्राह्मण जमींदार परिवार में हुआ। इनके पिता जी का नाम कृष्ण जी तिवारी था और ये उस समय के राजा के मंत्री होते थे। इनकी माता जी का नाम अमृता बाई था। स्वामी जी को धार्मिक विचार अपने पिता जी से विरासत में मिले थे। मात्र चौदह वर्ष की आयु में ही इन्होंने चारों वेद और गीता को कंठस्थ कर लिया था। पिता का उपदेश पाकर ये मोक्ष प्राप्ति के लिए शिवरात्रि में लीन हो गए। परन्तु कड़ी आराधना के बाद भी दर्शन न होने पर उन्होने मूॢत पूजा का खंडन किया। आप जी ने स्वामी पूर्णानंद जी से चैत्नय की दीक्षा प्राप्त की। बाद में उन्होंने मथुरा में स्वामी विरजानंद के सान्निध्य में वेदाध्यन किया।
क्या मूर्ति पूजा के खंडन का समाज ने विरोध नहीं किया?
पहली दफा हरिद्वार में शास्त्रार्थ के दौरान बहुत सारे पाखंडियों द्वारा स्वामी जी का विरोध किया गया। मगर विभिन्न मत-मतांतरों के विद्वान शास्त्रार्थ में उनसे परास्त हो गए। स्वामी जी ने सत्य का मंडन करने की प्रक्रिया में होने वाले स्वाभाविक विरोध की कभी परवाह नहीं की।
स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना क्यों की?
आर्य समाज की स्थापना मुख्य कारण यही था कि उस समय सारा समाज विभिन्न धर्म -संप्रदायो में विभाजित था। लोग वैदिक धर्म व अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे थे। इसीलिए सन् १८७५ में मुम्बई में स्वामी दयानंद जी ने समाज को मूल वैदिक धर्म व संस्कृति की याद को ताजा करने के लिए आर्य समाज की स्थापना की, जिससे कि स्वामी जी ने सारे भारत वर्ष को प्रेम के एक धागे में पिरोने क ा प्रयास किया। इनकी रचना सत्यार्थ प्रकाश में भी उन्होंने समाज में फैली कुरीतीयों व अंधविश्वास का घोर खंडन किया है।
गुरू विरजानंद जी के साथ स्वामी दयानंद जी की मुलाकात कैसे हुई?
गुरू विरजानंद जी की ख्याति से स्वामी जी पहले ही परिचित हो चुके थे। किसी मूर्ति पूजक द्वारा भी उन्हें यह सलाह दी गई कि वे विरजानंद जी के पास जाकर ही उनसे व्याकरण, ज्योतिष और वेदों का अध्ययन लें। उस अध्ययन के पश्चात ही वे विरोधियों के सामने शस्त्रार्थ में विजय हासिल कर सकते हैं। तब स्वामी जी विरजानंद जी की खोज में निकल गए एवं तीन वर्ष तक उन्होंने मथुरा में रह कर ही वेदों का अध्ययन किया। उसके पश्चात ही उन्होनें समाज में पाखंडियों से लोहा लिया व समाज को नई दिशा दी।
आर्य समाज के सिद्धांत क्या हैं?
आर्य समाज के दस नियम महर्षि दयानंद ने बनाए। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सत्य ग्रहण करने एवं असत्य को छोडऩे के लिए सदैव उद्यत रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपने स्वार्थ के साथ-साथ परोपकार पर भी विशेष देना चाहिए। उन्होंने जाति -पांति के बंधनों से समाज को मुक्त रखने का आह्वान किया। उन्होंने मूर्ति पूजा खंडन का निराकार प्रभु की खोज के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी ने नारी और समाज के अछूत समझे जाने वाले वर्गो के उद्धार के लिए भी ठोस पहलकदमियां की।
प्रस्तुति:प्रवीण व आयुष्मान
रूढिय़ों और भांति -भांति के पाखंडों के गर्त में समाते जा रहे भारतीय समाज को एक बार फिर से वैदिक धर्म की ओर प्रवृष्ठा करने के लिए महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना की थी। भारत में स्वराज की बात करने वाले संभवत: वे पहले शख्स थे। उनसे प्रेरणा लेकर कार्य करने वाले नौजवानों ने कालांतर में भारत के स्वाधीनता संग्राम में अहम भूमिका अदा की। यह कहना है डीएवी सेंटेनरी पब्लिक स्कूल सिरसा के धर्मशिक्षक अनिल कुमार शास्त्री का। वे स्वामी दयानंद की जयंती के अवसर पर सामुदायिक रेडियो के कार्यक्रम हैलो सिरसा में केन्द्र निदेशक वीरेन्द्र सिंह चौहान के साथ बातचीत कर रहे थे। पेश है इस वार्तालाप के संपादित अंश -स्वामी दयानंद के जीवन पर प्रकाश डाले?
त्याग, सेवा व उदारता की प्रतिमूर्ति स्वामी दयानंद जी का जन्म गुजरात के टंकारा के मौरवी ग्राम मे एक ब्राह्मण जमींदार परिवार में हुआ। इनके पिता जी का नाम कृष्ण जी तिवारी था और ये उस समय के राजा के मंत्री होते थे। इनकी माता जी का नाम अमृता बाई था। स्वामी जी को धार्मिक विचार अपने पिता जी से विरासत में मिले थे। मात्र चौदह वर्ष की आयु में ही इन्होंने चारों वेद और गीता को कंठस्थ कर लिया था। पिता का उपदेश पाकर ये मोक्ष प्राप्ति के लिए शिवरात्रि में लीन हो गए। परन्तु कड़ी आराधना के बाद भी दर्शन न होने पर उन्होने मूॢत पूजा का खंडन किया। आप जी ने स्वामी पूर्णानंद जी से चैत्नय की दीक्षा प्राप्त की। बाद में उन्होंने मथुरा में स्वामी विरजानंद के सान्निध्य में वेदाध्यन किया।
क्या मूर्ति पूजा के खंडन का समाज ने विरोध नहीं किया?
पहली दफा हरिद्वार में शास्त्रार्थ के दौरान बहुत सारे पाखंडियों द्वारा स्वामी जी का विरोध किया गया। मगर विभिन्न मत-मतांतरों के विद्वान शास्त्रार्थ में उनसे परास्त हो गए। स्वामी जी ने सत्य का मंडन करने की प्रक्रिया में होने वाले स्वाभाविक विरोध की कभी परवाह नहीं की।
स्वामी जी ने आर्य समाज की स्थापना क्यों की?
आर्य समाज की स्थापना मुख्य कारण यही था कि उस समय सारा समाज विभिन्न धर्म -संप्रदायो में विभाजित था। लोग वैदिक धर्म व अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे थे। इसीलिए सन् १८७५ में मुम्बई में स्वामी दयानंद जी ने समाज को मूल वैदिक धर्म व संस्कृति की याद को ताजा करने के लिए आर्य समाज की स्थापना की, जिससे कि स्वामी जी ने सारे भारत वर्ष को प्रेम के एक धागे में पिरोने क ा प्रयास किया। इनकी रचना सत्यार्थ प्रकाश में भी उन्होंने समाज में फैली कुरीतीयों व अंधविश्वास का घोर खंडन किया है।
गुरू विरजानंद जी के साथ स्वामी दयानंद जी की मुलाकात कैसे हुई?
गुरू विरजानंद जी की ख्याति से स्वामी जी पहले ही परिचित हो चुके थे। किसी मूर्ति पूजक द्वारा भी उन्हें यह सलाह दी गई कि वे विरजानंद जी के पास जाकर ही उनसे व्याकरण, ज्योतिष और वेदों का अध्ययन लें। उस अध्ययन के पश्चात ही वे विरोधियों के सामने शस्त्रार्थ में विजय हासिल कर सकते हैं। तब स्वामी जी विरजानंद जी की खोज में निकल गए एवं तीन वर्ष तक उन्होंने मथुरा में रह कर ही वेदों का अध्ययन किया। उसके पश्चात ही उन्होनें समाज में पाखंडियों से लोहा लिया व समाज को नई दिशा दी।
आर्य समाज के सिद्धांत क्या हैं?
आर्य समाज के दस नियम महर्षि दयानंद ने बनाए। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को सत्य ग्रहण करने एवं असत्य को छोडऩे के लिए सदैव उद्यत रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपने स्वार्थ के साथ-साथ परोपकार पर भी विशेष देना चाहिए। उन्होंने जाति -पांति के बंधनों से समाज को मुक्त रखने का आह्वान किया। उन्होंने मूर्ति पूजा खंडन का निराकार प्रभु की खोज के लिए प्रेरित किया। स्वामी जी ने नारी और समाज के अछूत समझे जाने वाले वर्गो के उद्धार के लिए भी ठोस पहलकदमियां की।